भारत की सोलर पैनल निर्माण क्षमता वर्तमान में लगभग 125 गीगावाट (GW) तक पहुंच चुकी है, जबकि देश की घरेलू सोलर ऊर्जा मांग लगभग 40 GW है। यह स्थिति ओवरकैपेसिटी का संकेत देती है, जहां उत्पादन घरेलू जरूरतों से कई गुना अधिक हो गया है। इससे बाजार में एक बड़ा सोलर पैनल अधिशेष तैयार हो रहा है, जो कीमतों पर असर डाल सकता है।

ओवरकैपेसिटी से उत्पन्न चुनौतियां
जब किसी उद्योग में उत्पाद की आपूर्ति मांग से अधिक होती है, तो कीमतों में गिरावट आना आम बात है। भारतीय सोलर उद्योग में भी ऐसी ही स्थिति सामने आ रही है, जो चीन के सोलर बाजार में पहले भी देखी जा चुकी है। इस गिरावट की संभावना से सोलर निर्माता कंपनियों के लिए आर्थिक दबाव बढ़ जाता है। इसके अलावा, अमेरिकी बाजार में भारत के सोलर मॉड्यूल पर नए टैरिफ के कारण निर्यात भी घट रहा है, जिससे घरेलू बाजार पर निर्माता ज्यादा निर्भर हो गए हैं।
उत्पादन लागत और प्रतिस्पर्धात्मकता
भारत में बने कुछ सोलर मॉड्यूल आयातित सोलर सेल्स पर आधारित होते हैं, जबकि पूरी तरह से देश में बने मॉड्यूल की कीमतें अक्सर चीनी मॉड्यूल की तुलना में ज्यादा होती हैं। यह भारी कीमतों की वजह से भारतीय उत्पादकों को वैश्विक बाजार में टिके रहना मुश्किल हो जाता है। सरकार कई नीतियों के जरिए स्थानीय उद्योग को समर्थन देने की कोशिश कर रही है, लेकिन इससे लागत और प्रतिस्पर्धा संबंधी समस्याओं पर पूरी तरह असर नहीं पड़ा है।
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उद्योग पर ओवरकैपेसिटी का प्रभाव
छोटे और मध्यम स्तर के सोलर निर्माता इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। बढ़ती प्रतिस्पर्धा और कम होती मार्जिन के चलते कई कंपनियां आर्थिक तौर पर कमजोर पड़ रही हैं, जिससे उद्योग में विलय का दौर तेज हो सकता है। यह कदम उद्योग की मजबूती के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन इससे रोजगार और नवप्रवर्तन पर प्रभाव पड़ सकता है।
अवसर और भविष्य की रणनीतियां
हालांकि यह स्थिति चुनौतीपूर्ण है, पर भारत के लिए इसमें अवसर भी मौजूद हैं। नए बाजारों जैसे अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, और यूरोप में निर्यात बढ़ाकर भारत अपनी सोलर क्षमता का बेहतर उपयोग कर सकता है। इसके साथ ही, उत्पादन लागत कम करने, तकनीकी सुधार लाने और उत्पाद की गुणवत्ता सुधारने पर जोर देना होगा ताकि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिकाऊ बना जा सके।







